Saturday, May 10, 2014



मां की याद
                               
बीत गये बरसों के उलझे कोलाहल में
अक्सर उसके बुलावों की याद आती है
याद आता है उसका भीगा हुआ आंचल
जो बादलों की तरह छाया रहता था कड़ी धूप में
रेतीले मार्गों और अधूरी उड़ानों के बीच
अब याद ही तो बची रह गई है उस छांव की

                                                                                                
बचपन के बेतरतीब दिनों में
अक्‍सर पीछा करती थी उसकी आवाज
और आंसुओं में भीगा उसका उदास चेहरा
अपने को बात-बात में कोसते रहने की
उसकी बरसों पुरानी बान
वह बचाए रखती थी हमें
उन बुरे दिनों की अदीठ मार से
कि जमाने की रफ्तार में छूट न जाए साथ
उसकी धुंधली पड़ती दीठ से बाहर


दहलीज के पार
हम नहीं रह पाए उसकी आंख में
गुजारे की तलाश में भटकते रहे यहां से वहां
और बरसों बाद जब कभी
पा जाते उसका आंचल
सराबोर रहते थे उसकी छांव में

वह अनाम वत्सल छवि
अक्सर दीखती थी उदास
             बाद के बरसों में,
कहने को जैसे कुछ नहीं था उसके पास
न कोई शिकवा-शिकायत 
न उम्मीद ही बकाया
फकत् देखती भर रहती थी    अपलक
हमारे बेचैन चेहरों पर आते उतरते रंग -
हम कहां तक उलझाते
           उसे अपनी दुश्‍वारियों के संग?



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